चाह कर भी मन की बात लिख नहीं सकती। सोशल मीडिया पर भी जब बंदिशें लगाने लगे लोग तो कहाँ जायें जहाँ अपनी बात कह सकें।
अपने मन की बात अगर लिख भी डालूं तो अपनों के क्रोध की ज्वाला में जलना पड़ेगा।
उफ्फ़ क्यों इतना सशक्त होते हुए भी असहाय बना देता है ये पुरुष प्रधान समाज एक स्त्री को?😢
स्त्री का समर्पण, त्याग जो वो परिवार के लिए सालों से करती आई है, अचानक से सब भूलने लग जाते हैं जब वो अपनी छोटी-छोटी खुशियां तलाशने लगती है छोटी-छोटी बातों में।
क्या स्त्री को इतना भी अधिकार नहीं कि कुछ पल वो अपनी शर्तों पर जी सके?
क्या एक स्त्री मात्र मशीनी मानव की तरह सबकी इच्छायें पूरी करने के लिए है जिसे समाज ने नारी को त्याग, समर्पण का नाम देकर देवी बना दिया है। लेकिन क्या उसमें संवेदनायें नहीं हैं? क्यों संस्कारों के नाम पर उसके पैरों में बेड़ियां डाल दी गई हैं।
वो भी जीना चाहती है, खुले आकाश में।
कष्ट होता है बहुत जब सब कुछ सहते हुए भी मानसिक यातनायें कम होने का नाम नहीं लेती।
इतना असहाय कभी नहीं रही समाज के सामने जितना असहाय एक स्त्री अपनों के सामने हो जाती है।
नहीं बनना मुझे महान... बस एक छोटा सा मेरे हिस्से का आसमां दे दो मुझे...
थोड़ा सा जी लेने दो मुझे मेरी शर्तों पर...
नहीं चाहिए वो दिखावे की दुनियां जहाँ चेहरे पर नकाब के पीछे सिसकियां है...!!!
Sunday, 10 December 2017
एक स्त्री मन की पीड़ा...
Thursday, 5 October 2017
हाँ, पसंद है मुझे, तुम्हें भी सहेज़ कर रखना...
हाँ, पसंद है मुझे
अतीत की यादों में रहना,
हर वो चीज़
जो जोड़ती है मुझे
मेरे अपनों से,
पसंद है मुझे
उन्हें सहेज़ कर रखना...
मिली है ये आदत मुझे,
विरासत में पिता से,
उन्हीं से सीखा
शब्दों को पिरोना भी,
पुराने बक्से में
वो पुरानी किताबें
सहेज़ कर रखना भी...
हर वो बात तुम्हारी भी
तीखी, मीठी,
रख दी है सहेज़ कर,
वैसी ही मिलेंगी,
जैसे कल की ही बात हो
हां,पसंद है मुझे
तुम्हें भी सहेज़ कर रखना...!!!
#ज्योत्सना
Wednesday, 28 June 2017
दरवाजा...
दरवाजे अक्सर
तभी बंद होते हैं,
जब किसी के आने की
उम्मीद खत्म हो जाती है।
कुछ दरवाजे फिर खुलते हैं,
सुबह की किरण के साथ,
लेकर नये एहसास...
लेकिन ऐसे भी होते हैं
कुछ दरवाजे
जो बंद हो जाते हैं सदा के लिए,
क्योंकि उन दरवाजों के पीछे
दफन हो जाती हैं वो उम्मीदें,
जो कभी पूरी नहीं होंगी...!!!
#ज्योत्सना
Tuesday, 20 June 2017
अनिकेत....
तुम्हें भूल जाती हूँ अक्सर,
ज़िंदगी की आपा-धापी में,
अचानक याद आ गई तुम्हारी,
जब वो लेख पढ़ा जो
तुम्हारे लिए लिखा था...
एक स्त्री को
ममत्व का एहसास
तुमने ही तो कराया था,
जब तुमने आँखें खोली थी,
मेरे आँचल में...
तुम्हारा वो मासूम स्पर्श,
रूई के सफेद फाहे की तरह,
तुम्हारा चेहरा...
सब कुछ आँखों के सामने है,
जैसे कल की ही बात हो...
बस तुम्हारा यूं
अचानक से चले जाना
जैसे सपना था मेरे लिए
पर हकीकत भी यही थी,
एक काला साया आया
सफेद कोट पहने
और छीन ले गया
कुछ ही घंटों में...
तुम्हें मुझसे सदा के लिए...
पीड़ा है बहुत मन में,
जो दिखती नहीं...
लेकिन
समय के साथ भरे घाव
अचानक यूं हरे हो जाते हैं...
तुम्हारे जाने का दिन जब
यूं सामने आ जाता है...!!!
#ज्योत्सना
Tuesday, 13 June 2017
तुम्हारा आग्रह माँ...
दुविधा में हूँ
कैसे स्वीकार करूँ
तुम्हारा आग्रह माँ...
बरसों बीत गये
तुमको देखे,
बहुत शिकायतें हैं तुमसे,
इतने बरसों की।
मेरा कसूर क्या था
जो तुम मुझको भूल गई,
एक नन्हीं जान को
अपनी खुशियों की खातिर
भूल गई।
तुम्हारे आँचल की छांव को
हमेशा तरसती रही हूँ,
बिन माँ की बच्ची
सुनते-सुनते बड़ी हुई हूँ।
अब जीना मैंने सीख लिया था,
बिन आँचल की छांव के,
जैसे कड़ी धूप में भी
रुक न सके जो पांव थे।
एक मौका दिया है वक्त ने
शायद फिर हमको भी,
तुम्हारा प्रेम जागृत हुआ है
इतने वर्षों बाद भी।
चाहती हूँ मैं भी
तुम्हारे आँचल में समा जाना,
वर्षों का जो खालीपन था,
चाहती हूँ उसे समेट लेना।
जानती हूँ तुम भी
जूझ रही हो ज़िंदगी से,
बस एक बार पुकार लो
तो चली आऊं मैं दौड़ के।
कैसे बताऊं सबको,
ये कहानी तुम्हारी और मेरी ज़िंदगी की,
पर एक दिन वक्त सुना ही देगा,
दास्तां माँ -बेटी की...!!!
#ज्योत्सना
Saturday, 13 May 2017
निर्वात
एक तस्वीर
जो छपी है
सदियों से
मनमस्तिष्क में,
बहुत मुश्किल है
बदलना उसका,
आज फिर यादआया
कह देना उसका,
"निर्वात"
भर जाया करता है।
#ज्योत्सना
Thursday, 11 May 2017
बन जाओ न फिर वही बस मेरे लिए...!!!
जी कैसे पाते हो तुम मन में इतनी घृणा भरकर,
सांस कैसे ले पाते हो उस घुटन भरी हवा में,
क्या तुम्हारा मन नहीं होता मुस्कराने का?
जैसे मुस्काते हैं फूल उपवन में?
जीवन सरल है बहुत जीने का ढंग बदल जाये अगर,
नफरतों का साया छीन लेता है खुशियों को।
मुस्कराओ जी भर के,
उतार फेंको इस झूठे अहम् के लबादे को।
गुनगुनाओ फिर से वही गीत,
जो तुम गुनगुनाया करते थे उन कोंपलो के आने पर...
बन जाओ न फिर वही बस मेरे लिए...!!!
#ज्योत्सना
Monday, 17 April 2017
अपने जीवन को तुम यूं ही...
अपने जीवन को तुम यूं ही,
पर निंदा में न बेकार करो...!!
तुममें है असीमित ऊर्जा,
उस ऊर्जा का सदुपयोग करो...!!
नवजीवन दो निराश प्राणी को,
सकारात्मक ऊर्जा का संचार करो...!!
स्वयं की क्षमता को पहचानो,
भीड़ का हिस्सा व्यर्थ न बनो...!!
दूर रहो पर निंदा से,
अपनी ऊर्जा को सकारात्मक करो...!!
ध्यान न अपना भटकाओ,
किसी निरीह के तुम काम आओ...!!
महापुरुषों के गुणों को पहचानो,
प्रशंसा में समय व्यर्थ न करो...!!
अपना लो उनके सद्गुणों को,
तुम भी किसी के पथ प्रदर्शक बनो...!!
अपने जीवन को तुम यूं ही,
पर निंदा में न बेकार करो...!!
#ज्योत्सना
बस मेरी न सही पर तुम सुन लो उन निर्धन की पुकार...
कुछ शब्द
उन भरी आँखों पर भी
लिख दो,
जो समेटे है हृदय में
अनगिनत तूफानों को,
बस आज सुन लो
इस भारी हृदय की व्यथा
और मुक्त कर दो
इस उद्वेलित मन को।
क्यों आज व्याकुल है मन,
बांटने को आतुर तुमसे
हर वो बात,
जो कर जाती है मन को तार,
बस मेरी न सही,
पर तुम सुन लो
उन निर्धन की पुकार...!!!
#ज्योत्सना
Wednesday, 12 April 2017
वो राह में मिली एक सिसकती ज़िंदगी...
०७.०४.२०१७ की शाम बेटे के साथ बाज़ार से घर को लौटते रास्ते में अंधेरा था तो मोबाईल की टॉर्च जलाकर थोड़ा ही आगे बढ़ी तो एक वृद्धा जो शायद अस्सी वर्ष के आस-पास रही होंगी, सफेद बेतरतीब बाल, अचानक रास्ता रोककर कहने लगी, बेटा मेरा कमरे का ताला खोल दो। मैं चौंक गई और उनके साथ गेट के अंदर कदम रखा। समझ नहीं पाई कि वो अपना ताला क्यों नहीं खोल पा रही थी। चाबी को दुपट्टे में बांधा हुआ था। टॉर्च की रोशनी में देखा तो हाथ फ्रेक्चर था। मैंने ताला खोला और वो पहले अंदर जाकर लाईट जला आई। मैं भी दरवाजे पर खड़ी थी तो वह रोने लगी कि कुछ दिन पहले कोई बाईक वाला हाथ में फ्रेक्चर कर चला गया। परिवार में सब होते हुए भी अकेली व बेबस थी। उनका रोना देखकर बहुत खराब लगा।
मुझे अंदर आने को बोली तो मैं अंदर चली गई।बेटा बाहर ही खड़ा रहा। मैंने पूछा तो बताया कि बेटा बेटी व नाती पोतों से भरा परिवार है लेकिन उन्हें कोई पूछने वाला नहीं। खाना भी कभी कोई दे जाता है तो खा लेती हैं वरना भूखी ही सो जाती हैं। एक हाथ से सब काम बहुत मुश्किल से होते हैं।
अचानक बच्चों की तरह बिलखने लगीं। मन भारी हो आया। कहने लगी दूध, फल आदि कुछ भी नहीं मिलता इस हालत में जबकि डॉक्टर ने कहा है।
मुझसे कुछ कहा न गया क्योंकि पूरी स्थिति से अपरिचित थी, फिर भी ईश्वर पर विश्वास रखने को कहा और सोचने लगी कि इनके लिए क्या मदद की जाये। इसके बाद उन्हें थोड़ा ढांढस बंधा मैं आने लगी तो उन्होंने आते रहना कहा। कमरे से बाहर निकलते गेट बंद कर निकली तो यही सोचती रही कि क्यों बच्चे इतने स्वार्थी हो जाते हैं जो उम्र के इस पड़ाव पर माता-पिता को अकेला छोड़ देते हैं।
घर आकर श्रीमान जी को बात बताई और उनकी जानकारी लेने को कहा। अगले दिन वापस कर्मभूमि लौटना था।
सभ्य समाज में न जाने ऐसी कितनी कहानियां बंद कमरों के पीछे छिपी हैं जो सोचने पर विवश करती हैं। ये कहानियां अगर उज़ागर हो जाये तो खुद को सभ्य कहने वाला समाज किसी से नज़र नहीं मिला पायेगा...!!!
#ज्योत्सना
Tuesday, 11 April 2017
वो पुराने ख़त...
मेरे प्रिय मित्रों को समर्पित...
याद आ गये वो दिन
बड़े सुहाने से,
जब कुछ ख़त
मित्रों के मिले
बक्से पुराने से..!!
कितना स्नेह
हुआ करता था आपस में,
दूर रहकर भी
जुड़े हुए थे ख़तों से,
वही स्नेह आज भी
बना हुआ है,
बस ख़तों की जगह
अब वॉट्स एप
आ गया है।
#ज्योत्सना
Saturday, 18 February 2017
कुछ संस्मरण मेरी पहली नौकरी के...
आज ट्विटर पर श्री सुबोध खन्नाजी के एक ट्विट "अदरक के पंजे" देखकर यकायक बरसों पुराना एक वाकया याद आ गया। वर्ष १९९७ की बात है तब मैं परास्नातक के अंतिम वर्ष में थी और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए भी प्रयासरत थी। अखबारों में भी विज्ञापन देखा करती थी व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी किया करती थी। अचानक एक दिन अखबार में एक विज्ञापन देखा और दिए गये पते पर अंग्रेजी में लिखकर आवेदन कर दिया। कुछ दिन बाद कॉल लैटर आया जो कि हिन्दी में बहुत सुंदर लिखावट में था। कम्प्यूटर उन दिनों चलन में कम ही था। बहुत खुशी हुई उस कॉल लैटर को पाकर। बस फिर एक दिन कॉलेज के बाद अपने एक मित्र हरेंद्र रावत जो हमसे सीनियर था और हमारे एडवेंचर ग्रुप का मैंबर भी, को साथ लेकर मैं दिए गये पते पर पहुँच गई जो कॉलेज के थोड़ा पास ही था। वो किसी का घर था। वहाँ जाकर देखा तो कोई बुजुर्ग थे जिन्हें मैंने वो कॉल लैटर दिखाया और आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने हम दोनों को अंदर बुलाकर बैठाया। थोड़ा परिचय लिया और फिर मेरा वो अंग्रेजी में लिखा आवेदन पत्र निकाल कर दिखाया। पूछा कि क्या ये मैंने लिखा है? मैंने हाँ में जवाब दिया। फिर उन्होंने मुझे एक सादा पेपर दिया और उसमें हिन्दी में आवेदन पत्र लिखने को कहा। ये मेरा प्रथम साक्षात्कार था, थोड़ी नर्वस भी थी लेकिन अपनी लेखनी पर विश्वास भी था क्योंकि उन दिनों मेरी लिखावट सुंदर हुआ करती थी जो मेरे पिताजी की देन थी। वे खुद प्रिंट मीडिया से जुड़े थे। खैर हिन्दी में आवेदन पत्र लिखकर दिया और उन्होंने उसे देखकर अगले दिन से आने को कह दिया। बस मन खुशी के मारे उछल रहा था कि बिना किसी सिफारिश के मेरे स्वयं के प्रयासों से मुझे नौकरी मिल गई। कॉलेज में कक्षायें सुबह की हुआ करती थी जो ग्यारह बजे तक समाप्त हो जाती थी, इसके बाद ही मैं वहाँ जाने लगी। उनको पहले ही मैंने बता दिया था और वो सहमत हो गये थे।
जब पहले दिन अपनी कक्षा खत्म कर पहुँची तो देखा वहाँ एक लड़की और थी। नाम याद नहीं लेकिन वो उनके ऑफिस कार्यों के साथ ही उनके छोटे-मोटे काम भी कर रही थी। पहले दिन उन्होंने मुझे कुछ अखबार जो वे संपादित करते थे, वो देकर पढ़ने को कहा ताकि मैं कुछ समझ पाऊं और कुछ पेपर इत्यादि व्यवस्थित करने को कहा। इस दौरान उनके बारे में जानने को मिला। वे नि:संतान थे व उनकी पत्नी इंडेन गैस एजेंसी में मैनेजर थी पटेल नगर में। वे खुद बीमार भी रहा करते थे। दो दिन मैं जब वहाँ गई तो उनको बहुत कुछ जानने लगी। वे चाहते थे कि उनका अदरक के पंजे व लाल अखबार नामक साप्ताहिक अखबार को चलाने वाला कोई हो जो उनके साथ ही रहे, जैसा कि मैंने पहले कहा वो नि:संतान थे। मैंने घर में पिताजी व भाई से पूछ कर बताने को कहा। घर में जैसा कि अपेक्षित था, मुझे मना कर दिया गया। तीसरे दिन मैंने वस्तुस्थिति से उनको अवगत कराया। इसके पश्चात उनको थोड़ी मायूसी हुई और फिर उन्होंने मेरी तीन दिन की तन्ख्वाह जो ३० रु० प्रतिदिन के हिसाब से ९० रु० होती थी, मेरे हाथों में दी और कहा कि सम्पर्क में रहना। उसके बाद मन दु:खी तो हुआ क्योंकि उन तीन दिनों में उन बुजुर्ग से एक आत्मिक रिश्ता बन गया था। उसके बाद कई महीनों तक मेरे घर के पते पर उनके वो दो साप्ताहिक अखबारों की प्रतियां आती रही और बीच में कुछ पत्र भी आये जिनका जवाब मैंने भी दिया। इस बीच परीक्षा परिणाम आते ही मेरा जलागम प्रबंधन परियोजना से कॉल लैटर आ गया और मैं वहाँ चयनित हो गई। उसके बाद धीरे-धीरे नई नौकरी, नये मित्र, अधिकारी, नई- नई जगहों पर जाना, प्रशिक्षण आदि में सब विस्मृत होता चला गया। उनके भी अखबार आने बंद हो गये।
जीवन में ऐसे भी कुछ संस्मरण याद आ जाते हैं जिन्हें हम लगभग भूल चुके होते हैं। अचानक से कुछ ऐसा होता है कि वे घटनायें पुनर्जीवित हों आँखों के आगे घूमने लग जाती हैं। आज पता नहीं वे कहाँ होंगे। अगली बार घर जाऊंगी तो ढूंढने का प्रयास करूंगी उनके पते को।
---ज्योत्सना
Sunday, 8 January 2017
अन्तर्मन की पीड़ा...
आज अपने लिए सोचा
तो कोहराम मच गया,
रोज मचता था जो मन के
गलियारों में,
सब कुछ तो सौंप दिया जीवन
फिर भी अपने लिए कुछ
सोचा तो कोहराम मच गया,
क्या स्त्री होना ही गुनाह था
मेरे लिए?
अपनी इच्छाओं का परित्याग कर
अपनों पर न्यौछावर करती आई हूँ,
अपने सपनों को अधूरा छोड़,
संग तुम्हारे दौड़ आई हूँ,
फिर भी उम्मीदों का बोझ
अपने सर पर लेती आई हूँ,
सब कुछ सीने में छुपाकर,
मुस्कानों की चादर ओढ़ती आई हूँ,
कब तक सहती रहूँगी
शब्दों की पीड़ा को,
जो हर बार सीने पर झेलती आई हूँ।
मेरा मौन और सब्र ही साहस देता है तुमको,
बस ये सब्र का बांध जब टूटेगा
तो भी दोषी मैं ही कहलाई जाऊंगी,
एक स्त्री की मर्यादा का पाठ
पढ़ा दिया जायेगा मुझको...
और बेबस मैं फिर मौन हो जाऊंगी
अपनी नियती पर कुंठित हो
यूं ही बंद कोठरी की मानिंद
कैद हो जाऊंगी फिर अपनी अंधेरी दुनियां में,
बस एक मशीन बनकर,
जो करती रहेगी आजीवन सबकी इच्छा पूरी
और खुद सिसकती रहेगी बंद कोठरी में।
हाँ, चाहे कितनी ही साहसी कहलाऊं,
पर तुम्हारे लिए केवल एक स्त्री ही तो हूँ मैं,
अधिकार दिया है तुमको समाज ने
पुुरूषत्व दिखाने का,
चाहे कितना ही चोटिल हो जाये अन्तर्मन मेरा।
Friday, 6 January 2017
मौन का विराम...
बहुत दिनों बाद गौर से देखा तुमको,
माथे पर सफेद हो आये बालों की लटें
और आँखों पर चढ़ा चश्मा,
चश्मे के पीछे से तुम्हारी बोलती आँखे,
कितनी गंभीरता आ गई तुममें,
कभी वो दिन भी सोचती हूँ,
जब झगड़ा किया करते थे बच्चों की तरह,
हम दोनों ही नाराज़ हो जाते थे एक दूसरे से,
और फिर कितनी रातें यूं ही बीत जाती थीं,
भीगे तकिये के साथ,
पसर जाता था मौन एक लंबे अंतराल तक,
पर इस बार का मौन कुछ ऐसा गुज़रा
जैसे सदियां बीत गई तुमसे बात किए,
तुम्हारे सफेद हो आये बाल जैसे कह रहे हों,
बहुत देर कर दी मौन को विराम देने में।
#ज्योत्सना
पतझड़...
पतझड़ के सूखे पेड़ की तरह लगते हो तुम,
जो बिल्कुल स्थिर खड़ा हो उपवन में,
पल्लव विहिन सूखी टहनियां, जो सहती हैं शीत को,
उम्मीद है एक दिन
तुम पर भी नई कोंपले फूटेंगी
और संचार होगा नवजीवन का,
तब तुम भी नवीन पल्लवों के संग,
झूमोगे और लहलहा उठोगे,
न जाने कब ये पतझड़ खत्म होगा
और बसंत आयेगा तुम्हारे जीवन में....!!!
#ज्योत्सना