०७.०४.२०१७ की शाम बेटे के साथ बाज़ार से घर को लौटते रास्ते में अंधेरा था तो मोबाईल की टॉर्च जलाकर थोड़ा ही आगे बढ़ी तो एक वृद्धा जो शायद अस्सी वर्ष के आस-पास रही होंगी, सफेद बेतरतीब बाल, अचानक रास्ता रोककर कहने लगी, बेटा मेरा कमरे का ताला खोल दो। मैं चौंक गई और उनके साथ गेट के अंदर कदम रखा। समझ नहीं पाई कि वो अपना ताला क्यों नहीं खोल पा रही थी। चाबी को दुपट्टे में बांधा हुआ था। टॉर्च की रोशनी में देखा तो हाथ फ्रेक्चर था। मैंने ताला खोला और वो पहले अंदर जाकर लाईट जला आई। मैं भी दरवाजे पर खड़ी थी तो वह रोने लगी कि कुछ दिन पहले कोई बाईक वाला हाथ में फ्रेक्चर कर चला गया। परिवार में सब होते हुए भी अकेली व बेबस थी। उनका रोना देखकर बहुत खराब लगा।
मुझे अंदर आने को बोली तो मैं अंदर चली गई।बेटा बाहर ही खड़ा रहा। मैंने पूछा तो बताया कि बेटा बेटी व नाती पोतों से भरा परिवार है लेकिन उन्हें कोई पूछने वाला नहीं। खाना भी कभी कोई दे जाता है तो खा लेती हैं वरना भूखी ही सो जाती हैं। एक हाथ से सब काम बहुत मुश्किल से होते हैं।
अचानक बच्चों की तरह बिलखने लगीं। मन भारी हो आया। कहने लगी दूध, फल आदि कुछ भी नहीं मिलता इस हालत में जबकि डॉक्टर ने कहा है।
मुझसे कुछ कहा न गया क्योंकि पूरी स्थिति से अपरिचित थी, फिर भी ईश्वर पर विश्वास रखने को कहा और सोचने लगी कि इनके लिए क्या मदद की जाये। इसके बाद उन्हें थोड़ा ढांढस बंधा मैं आने लगी तो उन्होंने आते रहना कहा। कमरे से बाहर निकलते गेट बंद कर निकली तो यही सोचती रही कि क्यों बच्चे इतने स्वार्थी हो जाते हैं जो उम्र के इस पड़ाव पर माता-पिता को अकेला छोड़ देते हैं।
घर आकर श्रीमान जी को बात बताई और उनकी जानकारी लेने को कहा। अगले दिन वापस कर्मभूमि लौटना था।
सभ्य समाज में न जाने ऐसी कितनी कहानियां बंद कमरों के पीछे छिपी हैं जो सोचने पर विवश करती हैं। ये कहानियां अगर उज़ागर हो जाये तो खुद को सभ्य कहने वाला समाज किसी से नज़र नहीं मिला पायेगा...!!!
#ज्योत्सना
Wednesday, 12 April 2017
वो राह में मिली एक सिसकती ज़िंदगी...
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