Sunday, 8 January 2017

अन्तर्मन की पीड़ा...

आज अपने लिए सोचा
तो कोहराम मच गया,
रोज मचता था जो मन के
गलियारों में,
सब कुछ तो सौंप दिया जीवन
फिर भी अपने लिए कुछ
सोचा तो कोहराम मच गया,
क्या स्त्री होना ही गुनाह था
मेरे लिए?
अपनी इच्छाओं का परित्याग कर
अपनों पर न्यौछावर करती आई हूँ,
अपने सपनों को अधूरा छोड़,
संग तुम्हारे दौड़ आई हूँ,
फिर भी उम्मीदों का बोझ
अपने सर पर लेती आई हूँ,
सब कुछ सीने में छुपाकर,
मुस्कानों की चादर ओढ़ती आई हूँ,
कब तक सहती रहूँगी
शब्दों की पीड़ा को,
जो हर बार सीने पर झेलती आई हूँ।
मेरा मौन और सब्र ही साहस देता है तुमको,
बस ये सब्र का बांध जब टूटेगा
तो भी दोषी मैं ही कहलाई जाऊंगी,
एक स्त्री की मर्यादा का पाठ
पढ़ा दिया जायेगा मुझको...
और बेबस मैं फिर मौन हो जाऊंगी
अपनी नियती पर कुंठित हो
यूं ही बंद कोठरी की मानिंद
कैद हो जाऊंगी फिर अपनी अंधेरी दुनियां में,
बस एक मशीन बनकर,
जो करती रहेगी आजीवन सबकी इच्छा पूरी
और खुद सिसकती रहेगी बंद कोठरी में।
हाँ, चाहे कितनी ही साहसी कहलाऊं,
पर तुम्हारे लिए केवल एक स्त्री ही तो हूँ मैं,
अधिकार दिया है तुमको समाज ने
पुुरूषत्व दिखाने का,
चाहे कितना ही चोटिल हो जाये अन्तर्मन मेरा।

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