Saturday, 13 September 2014

रिश्ता

जिंदगी के किसी
मकाम पर आकर
असफल होना
कितना दुखदायी है,
यह आज मालूम हुआ!
वैसे पुरी तरह नही जानती
कि मैं सफल हुई या असफल,
क्योंकि तुम खामोश हो,
खामोश बिल्कुल खामोश!
क्यों,
क्या तुम्हें खामोशी
ज्यादा प्यारी है?
लेकिन
तुम्हारी खामोशी भी बहुत
कुछ कह जाती है मुझे!
छू जाती है मेरे अंतर्मन को,
झकझोर जाती है अंदर तक,
मुझे तुम्हारी खामोशी नही चाहिये,
कृपया दो शब्द मुझे
लौटा दो अपने
ताकि
समझा सकू अपने मन को!
मन न होता तो
ये स्थिति न होती
जो शायद
आज मेरे सामने है!
कभी मन कहता है
कि मुझे भी तुम्हारी तरह
कठोर बन जाना चाहिये,
लेकिन
दोनों ही एक जैसे
हो जायेंगे तो
रिश्तो के माने ही बदल जायेंगे....!!!

-ज्योत्सना (1996)

Tuesday, 9 September 2014

कुछ पल

सोचती हूँ कि तुम्हारे दायरे से कहीं दूर चली जाऊँ,
लेकिन क्या करुं
जिंदगी की राहें,
तुम तक आकर रुक जाती हैं,
तुम्हारे अलावा और कोई विकल्प दिखाई नहीं देता।
मन भटकता है,
तुम्हारे पास आना चाहता है,
तुम्हें  आसपास महसूस करता है, 
लेकिन,
समय का अंतराल मुझे तुमसे दूर ले जाता है।
लेकिन जब-जब तुम्हारी छवि,
मेरे स्मृति पटल पर अंकित होती है,
तुम्हारी यादें पुनर्जीवित हो उठती हैं,
और फिर लगता है,
जैसे समय फिर लौट आया हो,
लेकिन कुछ पलोँ के लिए।

-ज्योत्सना (1996)

तृष्णा

सभी  आकांक्षायें
पूरी नहीं होती, 
इस कटु सत्य को
जानते हुए भी 
मनुष्य 
आशा क्यों करता है?
कहते हैं कि
उम्मीद पर
दुनिया टिकी  है!
लेकिन
जब किसी की
उम्मीदें ही 
ध्वस्त हो जायें तो?
उम्मीद के भरोसे
कब तक रहे?
क्या आजीवन गुजार दे
इस उम्मीद की तृष्णा में?

#ज्योत्सना (1996 मे मेरे द्वारा लिखी गई रचना)