Saturday, 18 February 2017

कुछ संस्मरण मेरी पहली नौकरी के...

आज ट्विटर पर श्री सुबोध खन्नाजी के एक ट्विट "अदरक के पंजे" देखकर यकायक बरसों पुराना एक वाकया याद आ गया। वर्ष १९९७ की बात है तब मैं परास्नातक के अंतिम वर्ष में थी और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए भी प्रयासरत थी। अखबारों में भी विज्ञापन देखा करती थी व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी किया करती थी। अचानक एक दिन अखबार में एक विज्ञापन देखा और दिए गये पते पर अंग्रेजी में लिखकर आवेदन कर दिया। कुछ दिन बाद कॉल लैटर आया जो कि हिन्दी में बहुत सुंदर लिखावट में था। कम्प्यूटर उन दिनों चलन में कम ही था। बहुत खुशी हुई उस कॉल लैटर को पाकर। बस फिर एक दिन कॉलेज के बाद अपने एक मित्र हरेंद्र रावत जो हमसे सीनियर था और हमारे एडवेंचर ग्रुप का मैंबर भी, को साथ लेकर मैं दिए गये पते पर पहुँच गई जो कॉलेज के थोड़ा पास ही था। वो किसी का घर था। वहाँ जाकर देखा तो कोई बुजुर्ग थे जिन्हें मैंने वो कॉल लैटर दिखाया और आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने हम दोनों को अंदर बुलाकर बैठाया। थोड़ा परिचय लिया और फिर मेरा वो अंग्रेजी में लिखा आवेदन पत्र निकाल कर दिखाया। पूछा कि क्या ये मैंने लिखा है? मैंने हाँ में जवाब दिया। फिर उन्होंने मुझे एक सादा पेपर दिया और उसमें हिन्दी में आवेदन पत्र लिखने को कहा। ये मेरा प्रथम साक्षात्कार था, थोड़ी नर्वस भी थी लेकिन अपनी लेखनी पर विश्वास भी था क्योंकि उन दिनों मेरी लिखावट सुंदर हुआ करती थी जो मेरे पिताजी की देन थी। वे खुद प्रिंट मीडिया से जुड़े थे। खैर हिन्दी में आवेदन पत्र लिखकर दिया और उन्होंने उसे देखकर अगले दिन से आने को कह दिया। बस मन खुशी के मारे उछल रहा था कि बिना किसी सिफारिश के मेरे स्वयं के प्रयासों से मुझे नौकरी मिल गई। कॉलेज में कक्षायें सुबह की हुआ करती थी जो ग्यारह बजे तक समाप्त हो जाती थी, इसके बाद ही मैं वहाँ जाने लगी। उनको पहले ही मैंने बता दिया था और वो सहमत हो गये थे।
जब पहले दिन अपनी कक्षा खत्म कर पहुँची तो देखा वहाँ एक लड़की और थी। नाम याद नहीं लेकिन वो उनके ऑफिस कार्यों के साथ ही उनके छोटे-मोटे काम भी कर रही थी। पहले दिन उन्होंने मुझे कुछ अखबार जो वे संपादित करते थे, वो देकर पढ़ने को कहा ताकि मैं कुछ समझ पाऊं और कुछ पेपर इत्यादि व्यवस्थित करने को कहा। इस दौरान उनके बारे में जानने को मिला। वे नि:संतान थे व उनकी पत्नी इंडेन गैस एजेंसी में मैनेजर थी पटेल नगर में। वे खुद बीमार भी रहा करते थे। दो दिन मैं जब वहाँ गई तो उनको बहुत कुछ जानने लगी। वे चाहते थे कि उनका अदरक के पंजे व लाल अखबार नामक साप्ताहिक अखबार को चलाने वाला कोई हो जो उनके साथ ही रहे, जैसा कि मैंने पहले कहा वो नि:संतान थे। मैंने घर में पिताजी व भाई से पूछ कर बताने को कहा। घर में जैसा कि अपेक्षित था, मुझे मना कर दिया गया। तीसरे दिन मैंने वस्तुस्थिति से उनको अवगत कराया। इसके पश्चात उनको थोड़ी मायूसी हुई और फिर उन्होंने मेरी तीन दिन की तन्ख्वाह जो ३० रु० प्रतिदिन के हिसाब से ९० रु० होती थी, मेरे हाथों में दी और कहा कि सम्पर्क में रहना। उसके बाद मन दु:खी तो हुआ क्योंकि उन तीन दिनों में उन बुजुर्ग से एक आत्मिक रिश्ता बन गया था। उसके बाद कई महीनों तक मेरे घर के पते पर उनके वो दो साप्ताहिक अखबारों की प्रतियां आती रही और बीच में कुछ पत्र भी आये जिनका जवाब मैंने भी दिया। इस बीच परीक्षा परिणाम आते ही मेरा जलागम प्रबंधन परियोजना से कॉल लैटर आ गया और मैं वहाँ चयनित हो गई। उसके बाद धीरे-धीरे नई नौकरी, नये मित्र, अधिकारी, नई- नई जगहों पर जाना, प्रशिक्षण आदि में सब विस्मृत होता चला गया। उनके भी अखबार आने बंद हो गये।
जीवन में ऐसे भी कुछ संस्मरण याद आ जाते हैं जिन्हें हम लगभग भूल चुके होते हैं। अचानक से कुछ ऐसा होता है कि वे घटनायें पुनर्जीवित हों आँखों के आगे घूमने लग जाती हैं। आज पता नहीं वे कहाँ होंगे। अगली बार घर जाऊंगी तो ढूंढने का प्रयास करूंगी उनके पते को।
---ज्योत्सना